मौनी दीक्षा

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एकदा महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ बैठे वार्तालाप कर रहे थे !

तभी एक घुमक्कड़ साधु उनके पास आया ;उसने बुद्ध से कहा -भगवन मेरे पास न बुद्धि है न चातुर्य न तो मेरे पास अच्छे शब्द हैं और न ही कुशलता अत: मैं आपसे कोई प्रश्न या जिज्ञासा करने की स्थिति में भी नहीं हूँ यदि आप मुझे पात्र समझें तो मेरे योग्य जो कुछ भी कह सकें कृपा करके कह दें !

महात्मा बुद्ध यह सुनकर घड़ी भर के लिए मौन हो गए वह साधु भी शांत बैठा रहा !

कौतूहलवश सभी भिक्षु उन दोनों को निहार रहे थे तभी अचानक उन्होंने देखा कि साधु की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी ! उसने उठकर महात्मा बुद्ध को साष्टांग प्रणाम किया और उनका आभार प्रकट करते हुए बोला -आपने बड़ी कृपा की भगवन आज मैं धन्य हो गया ! यह कहकर वह साधु वहां से नाचता-गाता गुनगुनाता चला गया !

यह देखकर शिष्य मंडली हतप्रभ रह गई ;वे हैरान थे कि महात्मा बुद्ध ने तो एक शब्द भी नहीं बोला फिर आखिर क्या घट गया उस साधु के जीवन में ?

एक शिष्य ने महात्मा बुद्ध के पास जाकर पूछा -भगवन कुछ समझ में नहीं आया न कोई वार्तालाप हुआ और न ही कोई प्रश्नोत्तर फिर क्या घट गया आप दोनों के बीच कि वह साधु परम संतुष्ट होकर लौट गया जबकि हम वर्षों से आपके साथ हैं फिर भी वैसा कुछ घटित क्यों नहीं होता ?

महात्मा बुद्ध ने अपना मौन तोड़ते कहा -वत्स घोड़े चार प्रकार के होते हैं! एक अड़ियल घोड़े होते हैं जो चाबुक मारने पर भी टस से मस नहीं होते जितना मारो उतना ही हठ पकड़ लेते हैं, दूसरे ऐसे होते हैं कि मारो तो चल पड़ते हैं! तीसरे कोड़ा फटकारते ही चल पड़ते हैं चौथे तरह के घोड़े को कोड़े की छाया ही काफी है !

बस यह साधु ऐसी ही आत्मा था उसे केवल इशारे भर की आवश्यकता थी जो बात मेरे मन ने कही और उसके मन ने ग्रहण कर ली!

मन जब जिद्दी घोड़ों की तरह रहे तो कोई लाभ नहीं !

बात शिष्यों की समझ में आ गई.

यदि पूर्ण समर्पित भाव से गुरु से ग्रहण करने की इच्छा हो तो बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ पाया जा सकता है!

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