इस प्रसंग से मौन की महत्ता समझी जा सकती है।
एक मछलीमार अपना कांटा डाले तालाब के किनारे बैठा था!
काफी समय बाद भी कोई मछली उसके कांटे में नहीं फँसी;
ना ही कोई हलचल हुई तो उसने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैने कांटा गलत जगह डाला हो और यहाँ कोई मछली ही न हो!
उसने तालाब में झाँका तो देखा कि उसके कांटे के आसपास तो बहुत-सी मछलियाँ थीं!
उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी मछलियाँ होने के बाद भी कोई मछली फँसी क्यों नहीं जबकि कांटे में दाना भी लगा है!
वह सोचने लगा कि इसका क्या कारण हो सकता है?
वह ऐसा सोच ही रहा था कि एक राहगीर ने उससे कहा -लगता है भैया यहाँ पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो!
अब इस तालाब की मछलियाँ कांटे में नहीं फँसती!
इस पर उसने हैरत से पूछा -क्यो ऐसा क्या हुआ है यहाँ?
राहगीर बोला –
पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत आकर ठहरे थे!
उन्होने यहाँ मौन की महत्ता पर प्रवचन दिया था!
उनकी वाणी में इतना तेज़ था कि जब वे प्रवचन देते तो सारी मछलियाँ भी बड़े ध्यान से सुनती!
यह उनके प्रवचनों का ही असर है कि उसके बाद जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए कांटा डालकर बैठता है
तो ये मौन धारण कर लेती है जब मछली मुँह खोलेगी ही नहीं तो कांटे में फँसेगी कैसे?
इसलिए बेहतर यहीं है कि आप कही और जाकर कांटा डालो!
उसकी बात मछलीमार की समझ में आ गई और वह वहाँ से चला गया!
मौन की महत्ता
संत ने कितनी सही बात कही
कि जब मुँह खोलोगे ही नहीं तो फँसोगे कैसे?
यह बात साधकजनो मछलियों की तरह हमे भी अपने जीवन मे उतार लेनी चाहिए!
साधना सत्संगो मे स्वामी जी महाराज ने सबसे ज्यादा समय मौन का रखा है।
कुछ सोच कर ही ऐसा प्रावधान किया होगा!
परमात्मा ने हर इंसान को दो आँख दो कान दो नासिका हर इन्द्रि दो-2 ही प्रदान की है पर जिवहा एक ही दी क्या कारण रहा होगा?
यह एक ही अनेको भयंकर परिस्थितिया पैदा करने के लिये पर्याप्त है जरा सोचियेगा दो होती तो क्या होता!
संत महात्मा फरमाते है कि अगर इन्द्रिय संयम करना चाहते है तो इस जिहवा पर नियंत्रण कर लीजियेगा बाकी सब इन्द्रियां स्वयं नियंत्रित हो जायेगी!
कीजियेगा प्रयास साधकजनो!
बहुत-2 मंगलकामनाये शुभकामनाये!
धन्यवाद
पूज्य गुरुदेव डॉ विश्वामित्र जी