भक्तिमय कर्मयोग

भक्तिमय कर्मयोग – जीवन जीने की आसान कला

परम पूज्य श्री डॉ विश्वामित्र जी महाराज श्री के मुखारविंद से

जो अपने आप को, परमात्मा को समर्पित कर देता है, परमात्मा उसे अपने अनुसार चलाता है।

यह बहुत गहरा भेद आ जाता है, उसे वह अपने अनुसार चलाता है।

कर्मों के अनुसार नहीं चलाता।

मानो जो उसके कर्म हैं, संचित भी है, भले ही शास्त्र इस बात को नहीं मानता,

भले ही बहुत संत महात्मा इस बात को नहीं मानते,

कि वह प्रारब्ध कर्म हर एक को भोगने पड़ते हैं,

मैं कहता हूं , नहीं।

Dr Vishvamitr

शरणागत होईये – यही है भक्तिमय कर्मयोग

जो शरणागत हो जाता है, उसके प्रारब्ध कर्म तक भी परमात्मा कील के रख देता है।

उसके माथे के लेख बदल कर रख देता है।

यह शरणागति है, यह समर्पण है।

उसके पुराने कर्म जितने भी हैं, परमात्मा दग्ध करके रख देता है नवीन कर्म तो उसको छू नहीं सकते।

वह तो चलता हुआ तवा बन जाता है।

संत महात्मा कहते हैं कि जिस प्रकार गर्म तवे पर पानी छू हो जाता है इसी प्रकार से समर्पित व्यक्ति के नवीन कर्म छू हो जाते हैं।

उसको छूते नहीं हैं।

वह परमात्मा का नन्हा मुन्ना बच्चा बन के हर वक्त उसकी गोद में खेलता हुआ, मस्त घूमता है।

कभी रोता है, कभी हँसता है, कभी मुस्कुराता है, कभी कुछ करता है,मानो उसे यह एहसास होता है

कि परमात्मा रूपी गोद उसे उपलब्ध हो गई हुई है।

वह उस गोद में हर वक्त निहाल रहता है। निहारता रहता है, माँ उसे निहारती रहती है,

इस प्रकार से सुंदर जीवन यापन हो जाता है।

उस पर परमात्मा की कृपा का वरद हाथ हर वक्त रहता है।

उसे परमात्मा हर वक्त बार बार याद दिलाता रहता है,

बेटा! मैं सब कुछ कर रहा हूँ ।

भूल से भी तेरे मस्तिष्क में यह बात प्रवेश न करे कि तू भी कुछ कर सकता है।

बुद्धिजीवी तो यह प्रश्न करेंगे न कि यदि बुद्धि दी हुई है तो फिर हमें क्या करना है?

यह बुद्धिजीवी का प्रश्न है, एक शरणागत का प्रश्न नहीं है।

उसे तो बार बार ठोक बजा कर नित निरन्तर परमात्मा याद दिलाता रहता है,

निश्चिन्त रहिये

बेटा मैं सब कुछ करने वाला हूँ , मैं ही सब कुछ कर रहा हूँ , तू निश्चित रह!

उसे अपने बनने बिगड़ने की कोई चिन्ता नहीं होती।

उसमें निश्चिनन्ता आ गई होती है। निर्भयता आ गई होती है। और हो भी क्यों न !

जिसकी बाँह जगजननी ने पकड़ ली होती है कौन माई का लाल है जो उसका बिगाड़ सकता है।

इसलिए निश्चित घूमता है, निर्भय घूमता है, अकेला घूमे, किसी के साथ घूमे , उसे किसी के संग की आवश्कता नहीं ,

उसे तो स्थाई संग प्राप्त हो चुका हुआ है।

इसे ही भक्तिमयकर्मयोग कहा जाता है।

यह आरम्भ में तो कठिन है पर बाद में सब कुछ आसान हो जाता है।

तन , मन , धन का समर्पण। मन का समर्पण बहुत कठिन है।

जब तक यह नहीं हो जाता, तब तक बाकि सारे समर्पण आपने यदि किए भी हों तो आपका समर्पण अधूरा रहेगा।

मन तब समर्पित होता है परमात्मा के श्रीचरणों में, जब परमात्मा के सिवाय किसी की याद न आए।

तब समझिएगा कि आपका समर्पण सम्पूर्ण है ।

भक्ति प्रकाश में तो नहीं, किसी अन्य पुस्तक में पूज्य स्वामी जी महाराज ने यह समझाया है।
(हाल ही में प्रकाशित परमात्म मिलन, में यह कहा गया है) ।

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