परमपूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज के मुखारविंद से, देर है, अंधेर नहीं
एकदा भगवान श्री कृष्ण भोजन के लिए बैठे हुए थे!
एक दो कौर मुँह में लिये ही थे कि
अचानक उठ खड़े हुए एवं बड़ी व्यग्रता से द्वार की तरफ भागे…
फिर लौट आए… उदास… और भोजन करने लगे!
रुक्मणी ने पूछा -प्रभु थाली छोड़कर इतनी तेजी से क्यों गये ?
और इतनी उदासी लेकर क्यों लौट आये ?
कृष्ण बोले-
भगवान था ! लोग उसे पागल समझकर उसकी खिल्ली उड़ा रहे थे उस पर पत्थर फेंक रहे थे
और वह है कि मेरा ही गुणगान किए जा रहा था!
उसके माथे से खून टपक रहा था वह असहाय था इसलिये मुझे दौड़ना पड़ा!
-तो फिर लौट क्यों आये ?
प्रभु श्री बोले –
मैं द्वार तक पहुँचा ही था कि उसने इकतारा नीचे फेंक दिया और पत्थर हाथ में उठा लिया.
अब वह स्वयं ही उत्तर देने में तत्पर हो गया है; उसे अब मेरी जरूरत नही।
जरा रूक जाता
पूर्ण विश्वास करता
तो मैं पहुँच गया होता!
साधकजनो!
मानो भगवान श्री कहना चाह रहे हो कि
एक साधक को मुझ पर भरोसा रख
थोड़ा इंतजार तो अवश्य ही करना चाहिये!
कीजियेगा भरोसा, साधकजनो!!
एक वह ही है
जिस पर भरोसा किया जा सकता है !