कभी कभी भक्तो में भी अहंकार हो जाया करता है;
पर प्रभु राम भी वचनबद्ध हैं.
वे अपने भक्तो का अभिमान निश्चय ही भंग कर दिया करते है
चाहे इस के लिये उन्हें कोई भी मार्ग ही क्यों न अपनाना पड़े!
श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी का पहाड़ उठाये आकाश मार्ग से वापिस लंका की ओर प्रस्थान कर रहे है!
ह्रदय में अभिमान आ गया है
मैंने अकेले ही इस विशालकाय पर्वत को थाम रखा है!
सीता जी की खोज भी मैंने ही की ;
इस कार्य हेतु सौ योज़न का समुंदर भी मैं अकेले ही लाँघ गया ;
लंका भी मैंने ही विध्वंस की!
राम-लक्ष्मण को नागपाश के बंधन से मुक्त करवाने हेतु पक्षी-राज गरुड़ को भी मैं ही लेकर आया!
अभिमान से संदेह भी उदय हो गया है!
राम जी के सारे कार्य तो मैं ही कर रहा हूँ;
ये वास्तव में भगवान है भी या नहीं !
इन्हें तो पग-२ पर मेरी सहायता की आवश्यकता पड़ी है;………
भगवान तो सर्व-समर्थ होते है;
भला भगवान को किसी की सहायता की क्या आवश्यकता हो सकती है?
हनुमान ये सब कुछ सोच ही रहे थे कि
सर सर करता हुआ एक बाण आ लगा है!
धडाम से धरती पर आ गिरे हैं!
काफी समय बाद चेतना आयी है!
होश में आने के बाद जो कुछ देखा उसे देख कर के तो हतप्रभ रह गये है!
जिस विशालकाय पर्वत को उठाये वो फूले नहीं समा रहे थे
वह पर्वत तो उनके धरती पर गिरने के बावजूद भी आकाश में ही विद्यमान है!
सारा का सारा अभिमान हवा हो गया है-
वाह ! मेरे राम वास्तव में तो आप ही इस विशालकाय पर्वत को थामे हुए है ;
मैंने तो मात्र दिखावे हेतु मानो अंगुली लगा रखी थी!
आप तो स्वयं सर्व-समर्थ है;
आप के भक्तो का संसार में गुणगान हो उनका मान बढे इस उद्देश्य से ही आप उन्हें हर कार्य में आगे करते है!
वास्तव में तो करने-कराने वाले आप ही है!
इस तरह अनुनय कर के तो अपना अपराध क्षमा करवाया है!
साधकजनों,
आप भी अपने आप को अभिमान-शून्य कीजियेगा!
नाम (परमात्मा) और मान एक जगह रह सके ऐसा साधकजनों संभव नहीं!
बहुत-२ मंगलकामनाये-शुभकामनाये!