प्राचीनतम आयुर्वेद में जब भस्में व अन्य योग प्रचलन में नहीं थे, तब सभी उपचार ताज़ी वनस्पतियों को खिलाकर किये जाते थे. आसव, अरिष्ट, क्वाथ इत्यादि का उद्भव एक समस्या के कारण हुआ.
समस्या थी कि बहुत सी जड़ी बूटियां केवल ऋतु विशेष में ही मिलती हैं,
इस कारण इनको पूरे वर्ष उपलब्ध करने के साधन खोजे जाने लगे.
इन्हें सुखाया जाने लगा व उपयोग करने योग्य बनाने के लिये क्वाथ बनाने की परम्परा आरम्भ हुई.
आईये जानते हैं, क्या होते हैं आसव, आरिष्ट, क्वाथ अथवा काढ़ा अथवा …
आसव, अरिष्ट, क्वाथ
क्वाथ या काढ़ा बनाने के लिये सूखी वनस्पतियों से सोलह या आठ गुणा या कभी कभी बीस गुणा अधिक पानी लेकर उसे मंद आंच पर तब तक धीरे धीरे उबालते (simmer) थे.
जब तक कि पानी एक चौथाई या आधा न रह जाये.
क्वाथ बनाने के लिये ताज़ी हरी वनस्पतियों के लिये पानी की मात्रा 6 गुना रखी गयी.
जिस उबलने के बाद, 4 गुना मात्रा बचने पर काढ़ा तैयार माना जाता था.
आजकल प्रेशर कुकर (Pressure cookers) हैं
इसलिए हरी वनस्पति के लिये 15 मिनट व सूखी के लिये 30 मिनट का समय काफी है.
पानी की मात्रा भी चार गुना या पांच गुना से अधिक रखने की आवश्यकता नहीं.
महासुदर्शन काढ़ा, दशमूल क्वाथ इसी प्रकार बनाये जाते हैं.
आसव अरिष्ट मे अंतर
क्वाथ या काढ़े के साथ एक समस्या रही
इनका लम्बे समय तक परिरक्षण (preservation) नहीं किया जा सकता था.
उस युग में रेफ्रीजिरेटर होते नहीं थे,
इसलिए ये समस्या गर्मियों के मौसम में और अधिक उग्र हो जाती थी
जब इनमें सडन उत्पन्न होने का खतरा बढ़ने लगता था.
आयुर्वेद में आसव व अरिष्ट इस सन्दर्भ की परिणिति में रूप में विकसित हुये.
दूसरा कारण रहा कि जब कोई द्रव्य शुद्ध पानी की अपेक्षा सुरा (alcohol) में बदल दिया जाता है
तो उसके योगवाही गुण (bio-availability) बढ़ जाते हैं.
नीचे आसव और अरिष्ट बनाने की विधि दी गयी है.
अरिष्ट का मतलब
जब काढ़े में कुछ गुड या चीनी मिला कर उसका खमीरीकृत संधान (Fermentation process) कर बनाया गया, तो उसे अरिष्ट कहा गया. यह है अरिष्ट बनाने की विधि.
अश्वगंधारिष्ट, अशोकारिष्ट, दशमूलारिष्ट इत्यादि प्रमुख अरिष्ट हैं.
आसव का अर्थ
मिठासयुक्त (carbohydrates containing) ताज़ी जड़ी बूटियों से बिना उबाले खमीरीकृत संधान किये द्रव्य आसव कहलाये.
कुमारी आसव, द्राक्षासव, चन्दनासव, पत्रांगासव इत्यादि इसी विधि से तैयार किये जाते हैं.
जो पहले काढ़ा बनाकर संधान किये जाएँ, वे अरिष्ट, तथा जो बिना उबाले खामिरिकृत किये जाएँ वे आसव कहलाते हैं.
आसव और अरिष्ट की एक विशेषता यह है कि इनमें carbohydrates के सुरा (wine alcohol) में बदलने के कारण औषधि अधिक गुणकारी हो जाती है.
जो सुरा के योगवाही गुणों (bioavailability increase) के कारण होता है.
दूसरा, इससे पाचन क्रिया में भी सुधार होता है.
सुरा (alcohol) की मात्रा 5 से 10% तक होती है.
जो बहुत ही कम होकर औषधि के लिए उत्तम योगवाही बन जाती है.
इस प्रकार घृतकुमारी अथवा ग्वारपाठा (Aloe vera) से कुमारीआसव बना, अश्वगंधा से अश्वगंधारिष्ट इत्यादि इत्यादि.
प्रवाही क्वाथ
आसव व अरिष्ट के संधान के लिये 30 से 40 दिन का समय चाहिए.
ताकि bacteria औषधि में उपलब्ध मिठासद्रव्यों को alcohol में बदल पायें.
लेकिन इस अवधि को कम करने के उद्देश्य से Ayurvedic Formulary of India (AFI) ने आधुनिक निर्माण विधि में सीधे alcohol मिलाने की अनुमति भी दे रखी है
जिसे प्रवाही क्वाथ कहा जाता है.
सारशब्द
आसव, अरिष्ठ और क्वाथ के रूप में औषधि देने के पीछे कुछ कारण हैं.
वनस्पतियों को ताज़ा व लम्बे समय तक नहीं रखना पड़ता.
इनमें सुरातत्व बन जाने से औषधि के गुणतत्व भी बढ़ जाते हैं,
और पीने वाली औषधि उपयोग में भी सहज, आसान रहती है.
Nice post. Thanks.
अच्छी जानकारी के लिये धन्यवाद जी।